Tuesday, March 3, 2009

वक़्त

बदलते वक़्त का इक सिलसिला सा लगता है

के जब भी देखो उसे दूसरा-सा लगता है

तुम्हारा हुस्न किसी आदमी का हुस्न नही किसी

बुजुर्ग की सच्ची दुआ सा लगता है

तेरी निगाह को तमीज़ रंग-ओ-नूर कहाँ

मुझे तो खून भी रंग-ऐ-हिना सा लगता है

दमाग-ओ-दिल हूँ अगर मुतमईन तो छाओं है धूप

थपेडा लू का भी ठंडी हवा सा लगता है

वो छत पे आ गया बेताब हो के आखिर

खुदा भी आज शरीक-ऐ-दुआ सा लगता है

तुम्हारा हाथ जो आया है हाथ में मेरे

अब ऐतबार का मौसम हरा-सा लगता है

निकल के देखो कभी नफरतों के पिंजरे से

तमाम शहर का "मंज़र" खुला सा लगता है

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