बदलते वक़्त का इक सिलसिला सा लगता है
के जब भी देखो उसे दूसरा-सा लगता है
तुम्हारा हुस्न किसी आदमी का हुस्न नही किसी
बुजुर्ग की सच्ची दुआ सा लगता है
तेरी निगाह को तमीज़ रंग-ओ-नूर कहाँ
मुझे तो खून भी रंग-ऐ-हिना सा लगता है
दमाग-ओ-दिल हूँ अगर मुतमईन तो छाओं है धूप
थपेडा लू का भी ठंडी हवा सा लगता है
वो छत पे आ गया बेताब हो के आखिर
खुदा भी आज शरीक-ऐ-दुआ सा लगता है
तुम्हारा हाथ जो आया है हाथ में मेरे
अब ऐतबार का मौसम हरा-सा लगता है
निकल के देखो कभी नफरतों के पिंजरे से
तमाम शहर का "मंज़र" खुला सा लगता है
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